आधुनिक भारत के इतिहास (History of Modern India in Hindi) के पिछले लेखों में हमने Upniveshvad Kya Hai? और Upniveshvad के पहले चरण अर्थात वाणिज्यिक चरण के बारे में विस्तार से जाना था। आज के इस लेख में हम उपनिवेशवाद के इसी विषय को आगे बढ़ाते हुए Upniveshvad के दूसरे चरण अर्थात औधोगिक चरण के बारे में पूरे विस्तार से चर्चा करेंगे और जानेंगे की कैसे ब्रिटिशों ने इस चरण के दौरान अपने औपनिवेशिक हितों को साधने के लिए भारत में अपनी नीतियों में परिवर्तन किये।
उपनिवेशवाद का दूसरा चरण: औधोगिक चरण (1813-1858)
यह वह काल था जब ब्रिटेन में औद्योगिक क्रांति शुरू हो चुकी थी तथा पूंजीपतियों का एक नया वर्ग अस्तित्व में आ गया था, जिसे 'उद्योगपति' माना जाता सकता है। अब ब्रिटेन में वाणिज्यिक पूँजीवाद व औद्योगिक पूँजीवाद के हितों में टकराहट हुई। जहां ईस्ट इंडिया कंपनी वाणिज्यिक पूँजीवाद का नेतृत्व कर रही थी वही ब्रिटेन के उद्योगपति औद्योगिक पूंजीवाद का। वाणिज्यिक पूँजीवाद और औद्योगिक पूँजीवाद की इस लड़ाई में जीत औद्योगिक पूंजीवाद की हुई और उसके दबाव में ब्रिटिश संसद ने 1813 का चार्टर अधिनियम लाकर British East India Company के व्यापारिक एकाधिकार को समाप्त कर दिया अर्थात भारत का बाजार ब्रिटिश औद्योगिक वस्तुओं के लिए खोल दिया गया। परंतु ब्रिटिश सरकार ने भारत के प्रशासन का कार्य ब्रिटिश कंपनी को दिया तथा बदले में ब्रिटिश कंपनी के शेयरधारकों को भारत के राजस्व खाते से 10.5% लाभांश के रूप में प्राप्त होना था। अब ब्रिटिश कंपनी से यह अपेक्षा की गई कि वह भारत में ऐसे वातावरण का निर्माण करें जिससे भारत में ब्रिटिश वस्तुओं की बिक्री बढ़े, वहीं दूसरी ओर भारत से ब्रिटेन की ओर कच्चे माल तथा खाद्यान्न का निर्यात हो सके।
19वीं सदी आते-आते ब्रिटेन में औधोगिक क्रांति की काफी अधिक प्रगति हो चुकी थी। अब ब्रिटेन में कई सारे उद्योग-कारखाने लग गए थे जो बड़ी मात्रा में वस्तुओं का उत्पादन कर रहे थे। वस्तुओं का अधिक मात्रा में उत्पादन तो हो रहा था लेकिन उसे खपाने के लिए बाजार की भी आवश्यकता थी। इस कारण ब्रिटिशों ने भारत में वाणिज्यिक चरण के दौरान अपनाई गई अपने नीतियों में परिवर्तन करना शुरू किया ताकि भारतीय बाजार को ब्रिटिश वस्तुओं के लिए तैयार किया जा सके। इसलिए ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने ब्रिटिश औधोगिक पूंजीवाद के हित में भारत को तैयार माल के आयातक तथा कच्चे माल के निर्यातक के रूप में परिवर्तित करना शुरू किया।
औधोगिक चरण की राजनीतिक नीतियाँ
यदि भारत का विकास तैयार माल के आयातक तथा कच्चे माल के निर्यातक के रूप में किया जाना था तो अधिक से अधिक भारतीय राज्यों को प्रत्यक्ष नियंत्रण में लेना आवश्यक था। यही वजह है कि इस काल में जो भी गवर्नर जनरल आए उन्होंने मुख्यतः साम्राज्यवादी विस्तार एवं भारतीय राज्यों के विलय करने पर जोर दिया।
ब्रिटिशों ने युद्ध के अलावा 2 अन्य विचारधाराओं के माध्यम से भारतीय राज्यों का अधिग्रहण किया -
- व्यपगत की अवधारणा (Doctrine of Lapse)
- कुशासन की अवधारणा (Doctrine of misgovernance)
1. व्यपगत की अवधारणा (Doctrine of Lapse)
व्यपगत की अवधारणा से आशय है कि 'जिस सर्वोच्च सत्ता ने आपको शक्ति दी है, वह आपसे उस शक्ति को वापस ले रही है'। इस अवधारणा के आधार पर झाँसी, सतारा, जैतपुर, उदयपुर, बघाट और नागपुर आदि राज्यों को ब्रिटिशों ने अपने अधिकार में ले लिया। व्यपगत की अवधारणा के तहत ब्रिटिशों ने भारतीय राज्यों को निम्नलिखित तीन श्रेणियों में बांटा -
(A) स्वतंत्र एवं मित्र राज्य - इन राज्यों को उत्तराधिकारियों के मामले में ब्रिटिश अधिकारियों से अनुमोदन लेने की कोई जरूरत नहीं थी।
(B) वैसे राज्य जो पहले मुगल एवं मराठों के अधीन रहे थे तथा अब ब्रिटिश के अधीन आ गए थे। ऐसे राज्य औपचारिकतावश ब्रिटिश कंपनी से उत्तराधिकार के मामले में अनुमोदन मांगते थे, जो उन्हें मिल ही जाता था।
(C) तीसरी श्रेणी में वे राज्य थे जिनका निर्माण ही ब्रिटिश सनद (अधिकार पत्र) से हुआ था। ऐसे राज्य के पास अगर कोई अपना कोई उत्तराधिकारी ना हो तो उसे किसी को गोद लेने का अधिकार नहीं था और यहां लॉर्ड डलहौजी का कहना था कि वह शक्ति फिर ब्रिटिश को वापस मिल जाएगी।
2. कुशासन की अवधारणा (Doctrine of misgovernance)
अवध क्षेत्र के व्यापक आर्थिक और सामरिक महत्व को देखते हुए लॉर्ड डलहौजी उसके विलय के लिए अत्यधिक इच्छुक था। वहीं दूसरी ओर अवध का विलय व्यपगत की अवधारणा की आधार पर संभव नहीं था। अतः इसके लिए लॉर्ड डलहौजी ने एक वैकल्पिक अवधारणा प्रस्तुत की और और वह थी "कुशासन की अवधारणा"। उसका कहना था कि अवध के लोगों ने नवाब वाजिद अली शाह के कुशासन से तंग आकर ब्रिटिश कंपनी को मुक्तिदाता के रूप में देखा है।
औधोगिक चरण (1813-1856) के गवर्नर जनरल
- लॉर्ड हेस्टिंग्स (1813-23)
- लॉर्ड एम्हर्स्ट (1823-28)
- विलियम बैंटिक (1828-35)
- ऑकलैंड (1836-42)
- ऐलनबरो (1842-44)
- लॉर्ड हार्डिंग (1844-48)
- लॉर्ड डलहौजी (1848-56)
औद्योगिक चरण के दौरान ब्रिटिश प्रशासनिक नीतियां
औधोगिक चरण में ब्रिटिश प्रशासनिक नीति कहीं ना कहीं ब्रिटिश औद्योगिक पूंजीवाद के हित से प्रेरित रही थी। इसका बल प्रचलित प्रशासनिक ढांचे में व्यापक सुधार और परिवर्तन पर रहा था ताकि भारतीय क्षेत्र अधिक सक्षम रूप में ब्रिटिश निर्मित उत्पादों के आयातक और तैयार माल के निर्यातक की भूमिका निभा सके। इस काल में ब्रिटिशों ने प्रशासनिक क्षेत्र में निम्नलिखित परिवर्तन किए -
I. बेहतर कानून व्यवस्था
अगर भारत का विकास ब्रिटिश विनिर्मित वस्तुओं के सक्षम बाजार के रूप में होना था तो कानून व्यवस्था को सुस्थापित करना आवश्यक था। यह एक प्रमुख कारण था कि गवर्नर जनरल लॉर्ड हेस्टिंगस ने 1815-16 में पिंडारियों के दमन के लिए कठोर कदम उठाया। पिंडारी लूटपाट का काम करते थे और उन्होंने उत्तर भारत एवं मध्य भारत में कानून व्यवस्था के लिए एक बड़ी समस्या उत्पन्न कर दी थी। पिंडारियों के दमन का दायित्व जनरल हिस्लॉप को दिया गया। इस दमन में सभी प्रमुख पिंडारी मारे गए। एक पिंडारी करीम खान ने आत्मसमर्पण कर दिया जिसे ब्रिटिश ने टोंक की जागीर दी। आगे विलियम बैंटिक ने ठगी का दमन करने के लिए जनरल स्लीमैन को नियुक्त किया। ठग संगठित रूप में काम करते थे तथा राहजनी से जुड़े हुए थे।
II. न्यायिक संरचना एवं विधि व्यवस्था में सुधार
संरचनात्मक परिवर्तन
विलियम बैंटिक ने लोगों को न्याय की सुविधा प्रदान करने के लिए संयुक्त प्रांत में भी एक पृथक सदर दीवानी अदालत और सदर निजामत अदालत की स्थापना की। इस प्रकार भारत में दो प्रकार के न्यायालय कम कर रहे थे एक तरफ सदर दीवानी और सदर निजामत अदालत थी जिनमें भारतीय कानून प्रचलित थे, वहीं दूसरी तरफ कलकत्ता में एक सुप्रीम कोर्ट स्थापित थी जिसमें अंग्रेजी कानून चलते थे।
परंतु आगे 1861 में एक हाईकोर्ट एक्ट लाया गया जिसके तहत सदर दीवानी व सदर निजामत अदालत एवं कलकत्ता की सुप्रीम कोर्ट दोनों को समाप्त कर दिया गया और बदले में कलकत्ता, मुंबई और मद्रास में उच्च न्यायालय की स्थापना की गई, इनमें एक ही प्रकार की विधि प्रणाली स्थापित की गई जो यूरोपीय मानदंड पर आधारित थी।
विधि का संहिताकरण एवं नई विधि प्रणाली की स्थापना
पहली बार 1833 के चार्टर में विधि निर्माण के कार्य का केंद्रीयकरण किया गया था अर्थात बंगाल के गवर्नर जनरल एवं उसके पार्षदों को मद्रास व मुंबई के लिए भी विधि निर्माण करना था। इस प्रकार बंगाल के गवर्नर जनरल की परिषद का दायित्व बढ़ गया था। 1833 के चार्टर में एक चौथे सदस्य के रूप में विधि सदस्य का प्रावधान लाया गया और लॉर्ड मैकाले को इस पद पर नियुक्त किया गया। लॉर्ड मैकाले नहीं बेंथमवादी विचारों के प्रभाव में विधि का संहिताकरण आरंभ किया। 1837 में मैकाले विधि संहिता बनकर तैयार हुई। आगे इसी आधार पर क्रमशः 1859 एवं 1860 में भारतीय दीवानी संहिता (Indian Civil Code) एवं भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code)को लागू कर दिया गया।
III. भू राजस्व व्यवस्था में सुधार
इस काल में भू-राजस्व व्यवस्था में परिवर्तन किया गया और रैयतवाड़ी व महालवाड़ी भू-राजस्व पद्धतियों को अपनाया गया। रैयतवाड़ी व महालवाड़ी भू-राजस्व पद्धतियों के बारे में अधिक जानने के लिए आप इस लेख को पढ़ सकते हैं - स्थायी, महालवाड़ी तथा रैयतवाड़ी बंदोबस्त/व्यवस्था क्या थी?
औधोगिक चरण की आर्थिक नीतियां
1. ब्रिटिश भू-राजस्व नीति
भारत में कंपनी की आय का मुख्य स्रोत भू-राजस्व था। जो कुल राजस्व के लगभग 52% भाग का प्रतिनिधित्व करता था। अतः आरंभ से ही ब्रिटिश कंपनी का बल भू-राजस्व व्यवस्था में सुधार करने पर रहा था। कंपनी के द्वारा इस क्रम में निम्नलिखित कदम उठाए गए -
- भूमि में निजी स्वामित्व की अवधारणा विकसित की गई।
- भूमि को विक्रय योग्य बना दिया गया।
- सभी प्रकार की भू-राजस्व व्यवस्था में भू-राजस्व की दर बहुत अधिक रखी गई थी जो भारत में प्रचलित दर से कहीं अधिक थी।
ब्रिटिशों की इस भू-राजस्व नीति का निम्नलिखित प्रभाव हुआ -
- भू-राजस्व की दर अधिक रहने के कारण किसान ऋण जाल में फंसते चले गए।
- भूमि की खरीद-बिक्री से ग्रामीण क्षेत्र में विषमता बढ़ गई। साथ ही भूमि के विखंडन को बल मिला।
- ग्रामीण क्षेत्रों में ब्रिटिश शासन के अंतर्गत विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग की स्थिति मजबूत हुई, वहीं सामान्य किसानों की दशा खराब हुई।
2. व्यावसायिक फसलों की खेती पर बल
कृषि के व्यवसायीकरण को ब्रिटिश औद्योगीकरण के संदर्भ में समझने की जरूरत है। स्वयं ब्रिटेन की कृषि अर्थव्यवस्था इतनी व्यापक नहीं थी कि ब्रिटिश औद्योगीकरण को समर्थन दे सके इसलिए ब्रिटिश औद्योगीकरण के हित में भारतीय कृषि अर्थव्यवस्था को निचोड़ दिया गया।
कृषि के व्यवसायीकरण से तात्पर्य है 'परंपरागत फसलों की जगह नगदी फसलों की खेती को प्रोत्साहन'। वस्तुतः भारत में कृषि का व्यवसायीकरण ब्रिटिश शासन की देन नहीं थी बल्कि नगदी फसलों की खेती का प्रचलन पहले से ही था किंतु ब्रिटिश शासन के अंतर्गत नगदी फसलों की खेती को व्यापक प्रोत्साहन दिया गया और सबसे बढ़कर भारतीय किसानों पर यह थोपी गई प्रक्रिया थी। निम्नलिखित कारणों से कृषि के व्यवसायीकरण को प्रोत्साहन मिला -
- किसान मोटे अनाजों की खेती कर भू-राजस्व की इतनी बड़ी रकम नहीं चुका सकते थे।
- ब्रिटिश उद्योगों के लिए कच्चे माल की जरूरत को पूरा करना।
- ब्रिटिश नगरीय जनसंख्या के लिए खाद्यान्न की जरूरत को पूरा करना।
- आधुनिक यातायात एवं संचार व्यवस्था में कृषि वस्तुओं के निर्यात को आसान बनाया।
व्यावसायिक खेती से भारत को निम्नलिखित प्रकार से फायदा हुआ -
- ग्रामीण क्षेत्रों में मौद्रिक संबंधों का विस्तार हुआ तथा पूंजीवादी खेती अर्थात मुनाफे के लिए खेती को प्रोत्साहन मिला।
- एक अखिल भारतीय अर्थव्यवस्था का विकास हुआ तथा भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व अर्थव्यवस्था से जुड़ी।
कृषि के व्यवसायीकरण से निम्नलिखित हानियां हुई -
- ब्रिटिशों के द्वारा केवल उन्हीं फसलों के उत्पादन को प्रोत्साहन दिया गया, जो उनकी जरूरत के अनुकूल था।
- औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था के अंतर्गत जो कृषि का व्यवसायीकरण हुआ उसका वास्तविक लाभ किसानों को ना मिलकर मध्यस्थ और बिचौलियों (व्यापारी, बीमा कंपनी के मालिक, जहाजरानी उद्योग के मालिक, ब्रिटिश निर्यातक आदि) को मिला।
- नकदी फसलों की खेती के कारण मोटे अनाजों की खेती जिन्हें "गरीबों का आहार" कहा जाता था को धक्का लगा इस कारण अकाल और भुखमरी की घटनाएं बढ़ गई।
3. व्यापार नीति
18वीं सदी तक भारत दस्तकारी उत्पादों का बड़ा निर्यातक रहा था परंतु 19वीं सदी में वह ब्रिटेन से औद्योगिक उत्पादों का आयातक बन गया और बदले में कृषि उत्पादों का निर्यातक बना। इस प्रकार भारत की व्यापारिक संरचना नकारात्मक रूप में प्रभावित हुई।
4. नगरीकरण को धक्का
ब्रिटिश नीति का प्रभाव 19वीं सदी में नगरीकरण की स्थिति पर भी देखा जा सकता है। 19वीं सदी में होने वाले सभी परिवर्तनों का परिणाम था - 'दस्तकारों का नगरों से पलायन तथा नगरीय जनसंख्या का कम होना'।
5. उद्योग नीति
मुगलकाल में ग्रामीण और नगरीय शिल्प एवं दस्तकारी (हस्तशिल्प) विकसित अवस्था में थी लेकिन ब्रिटिशकाल में धीरे-धीरे इसका पतन होने लगा। दस्तकारी के पतन के पीछे निम्नलिखित कारण थे -
- 1813 में भारत का दरवाजा ब्रिटिश वस्तुओं के लिए खोल दिया गया।
- रेलवे के माध्यम से ब्रिटिश विनिर्मित उत्पादों को पहुंचाना।
- भारतीय राज्यों की समाप्ति के कारण भारतीय दस्तकारी ने अपना घरेलू बाजार भी खो दिया।
- ब्रिटिश शैक्षणिक नीति का बल भारतीयों के एक ऐसी वर्ग को जन्म देना था जिनकी रूचि ब्रिटिशों से मिलती हो और वे ब्रिटिश वस्तुओं की ओर आकर्षित हो।
6. आधुनिक यातायात एवं संचार व्यवस्था का विकास
19वीं सदी में ब्रिटिश निति का बल आधुनिक यातायात एवं संचार व्यवस्था को विकसित करने पर रहा था। इसके अंतर्गत निम्नलिखित कार्य किये गए -
- नहरों एवं सड़कों का निर्माण
- रेलवे की शुरुआत
- डाक विभाग की स्थापना
- टेलीग्राफ की शुरुआत
औधोगिक चरण की सामाजिक नीतियां
इस काल की सामाजिक नीति में भी हमें एक बड़ा बदलाव देखने को मिलता है और इस बदलाव को प्रेरित करने में ब्रिटिश औद्योगिक पूंजीवाद की भूमिका मानी जा सकती है। इस काल में ब्रिटिशों ने निम्नलिखित सामाजिक नीतियां अपनाई -
1. समाज सुधार के लिए पहल
इस काल में ब्रिटिश ने समाज सुधार की दिशा में पहल की, इसे निम्नलिखित रूप में देखा जा सकता है -
A. सती प्रथा उन्मूलन
1829 में बंगाल में सती प्रथा उन्मूलन के लिए कानून बनाए गए और 1830 में उसे अन्य प्रेसीडेंसीयों में भी लागू किया गया।
B. दास व्यवस्था का उन्मूलन
1833 के चार्टर में दास व्यवस्था के उन्मूलन की अनुशंसा की गई थी। फिर 1843 में उसके लिए कानून बनाई गए।
C. शिशु हत्या पर पाबंदी
इसके लिए पहले से ही कानून थे परंतु 1830 के दशक में उसे कड़ाई से लागू किया गया।
D. विधवा पुनर्विवाह कानून
1856 में विधवा पुनर्विवाह कानून लाया गया।
उपर्युक्त सुधारों का सम्बन्ध औपनिवेशिक हितों से भी रहा था। ब्रिटिश को इस बात का एहसास था की जब तक भारतीयों को उनके परंपरागत सामाजिक ढाँचे से बाहर नहीं किया जाता तब तक भारतीय अंग्रेजी शिक्षा को स्वीकार नहीं करेंगे और जब तक समाज सुधार के लिए पहल नहीं की जाती वे परंपरागत सामाजिक ढांचे से बाहर नहीं निकाल सकते थे।
2. अंग्रेजी शिक्षा
अंग्रेजी शिक्षा के संबंध में ब्रिटिश शिक्षा नीति भी ब्रिटिश औपनिवेशिक हितों से जुड़ी रही थी। पीछे प्राच्यवादी चिंतकों ने भारत में एक ऐसी शिक्षा नीति पर बल दिया था जो भारतीय भाषा पर आधारित हो और भारतीय परंपरा के अनुकूल हो। यथा कोलकाता मदरसा, बनारस का संस्कृत कॉलेज आदि।
A. 1813 के चार्टर में भारत में शिक्षा के विकास के लिए 1 लाख वार्षिक आवंटन का प्रावधान रखा गया था। इसी उद्देश्य से प्रेरित होकर 'बंगाल लोक शिक्षा समिति' का गठन किया गया। इसका उद्देश्य 'बंगाल की भावी शिक्षा की नीति का निर्धारण था'। आरंभ में इसमें प्राच्यवादियों का प्रभाव था जैसे जेम्स प्रिंसेप बंधू। धीरे-धीरे इसमें पाश्चातवादियों का प्रभाव बढ़ने लगा और भारत की शिक्षा नीति पर बहस प्रारंभ हो गई तथा इसी से दो मुद्दे उभरकर आये -
i. भावी शिक्षा का आधार क्या हो?
ii. शिक्षा का माध्यम क्या हो?
पाश्चातवादियों का झुकाव पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान की ओर था। हालांकि पाश्चातवादी भारत की पारंपरिक शिक्षा के पक्ष में थे, फिर भी इस मुद्दे पर विशेष मतभेद नहीं था। मुख्य मतभेद दूसरे मुद्दे पर था क्योंकि पाश्चातवादी अंग्रेजी भाषा में लोगों को शिक्षा देने के पक्षपाती थे, वहीं प्राच्यवादीयों का कहना था की भारत की क्लासिकल भाषाओं (संस्कृत, फारसी) में भारतीयों को आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा दी जाएगी तभी भारतीय पश्चिम के आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा को स्वीकार करेंगे।
जब विलियम बैंटिक ने 1834 में बंगाल लोक शिक्षा समिति के अध्यक्ष के पद पर लॉर्ड मैकाले की नियुक्ति की तो फिर पाश्चातवादियों का पक्ष मजबूत हो गया। मैकाले ने 2 फरवरी 1835 को प्रसिद्ध मैकाले शिक्षा नीति को जारी किया। इसमें प्रावधान था की 'अंग्रेजी भाषा में भारतीयों को पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा दी जाएगी।
B. भारतीय संदर्भ में विप्रवेशन के सिद्धांत को अपनाया गया अर्थात पहले कुछ मुट्ठी भर भारतीयों को अंग्रेजी भाषा के माध्यम से आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा प्रदान करेंगे फिर भारतीय भाषाओं में जन-सामान्य तक पहुँचायेंगे। किंतु व्यावहारिक रूप में यह नीति विफल रही। ब्रिटिशों की इन नीतियों का सूक्ष्म परीक्षण करने पर हमें निम्नलिखित औपनिवेशिक हित नजर आता है -
- भारतीयों के एक ऐसे वर्ग को जन्म देना जिसका आकर्षण ब्रिटिश वस्तुओं की ओर हो अर्थात मैकाले के शब्दों में "वह केवल रंग और जन्म में भारतीय हो किंतु अपने दृष्टिकोण, रुचि और नैतिकता में ब्रिटिश हो"।
- कुछ भारतीयों को ब्रिटिश के अंतर्गत कनिष्ठ पदों पर नियुक्ति के योग्य बनाना।
- अंग्रेजी शिक्षा के माध्यम से ईसाई धर्म को प्रोत्साहन देना। मैकाले का यह भी विश्वास था की अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त भारतीय बंधुता के लगाव के माध्यम से ब्रिटिशों से जुड़ जाएंगे।
औधोगिक चरण की सांस्कृतिक नीतियां
इस काल में 2 प्रकार की विचारधाराएँ प्रचलित थी -
- उदारवादी विचारधारा
- उपयोगितावादी विचारधारा
उदारवादी व उपयोगितावादी विचारधाराएँ 19वीं सदी के यूरोप में प्रकट हुई। दोनों के बीच कुछ हद तक सामानता थी, परंतु कुछ बातों में भिन्नता भी थी -
दोनों विचारधाराओं में समानता
- दोनों विचारधाराएँ औद्योगिक पूंजीवाद की उपज थी और दोनों का उद्देश्य कहीं ना कहीं औद्योगिक पूंजीवाद के हितों का संवर्धन करना था।
- दोनों प्राच्यवादी चिंतकों के कट्टर आलोचक थे। दोनों का यह मानना था कि भारत की प्राचीन संस्कृति गौरवमयी नहीं है, बल्कि पिछड़ी हुई है।
- ये दोनों ही भारत में तीव्र सुधार एवं परिवर्तन की मांग कर रहे थे।
दोनों विचारधाराओं में असमानता
1. उदारवादी भारत में विधि निर्माण के माध्यम से सुधार की मांग कर रहे थे परंतु साथ ही वे भारत को सभ्य बनाने जैसे दावे भी कर रहे थे अर्थात इनका मानना था की अंग्रेजी भाषा के माध्यम से भारतीयों को भी सभ्य बनाया जा सकता है।
दूसरी तरफ उपयोगितावादी चिंतकों यथा जेम्स मिल व जेरेंमी बैंथम विधि निर्माण के माध्यम से भारत में बेहतर प्रशासन की मांग तो कर रहे थे परंतु वह सभ्य बनाने के मिशन को खारिज कर रहे थे। उनका कहना था कि "भारतीय कभी सभ्य हो ही नहीं सकते"। जेरेमी बेंथम ने तो यहां तक कहा कि "ब्रिटिश को एक स्कूल मास्टर की भूमिका निभानी होगी और भारतीयों की ओर से स्वयं शासन करना होगा"।
2. उदारवादियों का मानना था की भारत वर्तमान में पिछड़ा हुआ है लेकिन ब्रिटिश संस्था और अंग्रेजी शिक्षा के माध्यम से भारतीय प्रगति के रास्ते पर आगे बढ़ेंगे और एक समय ऐसा आयेगा जब वे स्वतंत्रता की ओर बढ़ जाएंगे। वहीं उपयोगितावादियों कहना था कि भारतीयों को स्वतंत्रता नहीं चाहिए भारतीयों को चाहिए सुख और यह सुख ब्रिटिश उन्हें सक्षम प्रशासन के माध्यम से प्रदान कर सकते हैं।
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