आधुनिक भारत के इतिहास के पिछले लेखों में हमने जाना की Upniveshvad Kise Kahate Hain?, उपनिवेशवाद के कौन-कौन से चरण होते है? तथा उपनिवेशवाद के पहले चरण अर्थात वाणिज्यिक चरण के दौरान ब्रिटिश कंपनी द्वारा राजनीति, प्रशासनिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में क्या-क्या नीतियां अपनाई थी। इस लेख में हम वाणिज्यिक चरण के दौरान ब्रिटिश कंपनी द्वारा प्रशासनिक क्षेत्र में अपनाई गई नीतियों के बारे में चर्चा करेंगे।
वाणिज्यिक चरण के दौरान ईस्ट इंडिया कंपनी की प्रशासनिक नीति
वाणिज्यिक चरण के दौरान ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी वाणिज्यिक पूँजीवाद के हित से प्रेरित थी। इस कारण कंपनी का उद्देश्य व्यापार में अधिक से अधिक निवेश करने पर रहा था और इसलिए कंपनी अपने दायित्व कम से कम करना चाहती थी। इसी वजह से कंपनी ने प्रशासन के क्षेत्र में कोई बड़े परिवर्तन पर बल नहीं दिया बल्कि कुछ छोटे-छोटे परिवर्तनों के साथ प्रचलित मुग़ल ढाँचे को ही बनाये रखा। वैसे इस काल में यदि परिवर्तन देखा गया तो वो राजस्व व्यवस्था और न्याय व्यवस्था के क्षेत्र में, क्योंकि कंपनी को व्यापार में निवेश करने के लिए धन की आवश्यकता थी और राजस्व का मुख्य स्रोत भू-राजस्व था। यह दूसरी बात है की आश्चर्यजनक रूप में लॉर्ड कॉर्नवालिस के काल में प्रशासनिक सुधार अधिक देखने को मिलते है।
प्रशासनिक सुधार के क्रम में पहला मुद्दा था 'ब्रिटिश सरकार के द्वारा कंपनी की गतिविधियों का निरीक्षण करना'। अब तक ब्रिटिश कंपनी भारत में ब्रिटिश सरकार के द्वारा दी गई संवैधानिक अधिकारिता के बगैर शासन कर रही थी। इस कारण सर्वप्रथम 1773 के रेग्युलेटिंग अधिनियम में ब्रिटिश संसद के द्वारा संवैधानिक अधिकारिता को स्पष्ट करते हुए ब्रिटिश कंपनी पर यह नियंत्रण लगाया गया कि वह प्रत्येक वर्ष अपने आर्थिक, वित्तीय एवं सैनिक मामले ब्रिटिश संसद के समक्ष प्रस्तुत करें। परंतु शीघ्र ही यह महसूस किया गया कि यह काफी नहीं था इसलिए 1784 के पिट्स इंडिया एक्ट में संसद का नियंत्रण बढ़ाते हुए एक छह सदस्यीय Board of Control का प्रावधान लाया गया जिसका काम भारत में कंपनी की गतिविधियों का निरीक्षण करना था। रेग्युलेटिंग अधिनियम, पिट्स इंडिया एक्ट और चार्टर अधिनियमों के बारे में अधिक जानने के लिए आप इन आर्टिकल्स को पढ़ सकते हैं -
- रेग्युलेटिंग अधिनियम क्या था और क्यों लाया गया?
- पिट्स इंडिया एक्ट क्या था तथा इसमें क्या-क्या प्रावधान थे?
- 1793, 1813, 1833 व 1853 के चार्टर एक्ट के बारे में पूरी जानकारी
1765 से 1772 के मध्य हुए प्रशासनिक सुधार
बंगाल में "द्वैध शासन व्यवस्था"
आरंभिक चरण अर्थात रॉबर्ट क्लाइव तथा उसके उत्तराधिकारी गवर्नरों ने बंगाल का प्रशासन अपने हाथों में नहीं लिया बल्कि उनके द्वारा वह पद्धति कायम की गई जिसे द्वैध शासन का नाम दिया जाता है।
द्वैध शासन पद्धति के तहत बंगाल के प्रशासन की शक्ति अप्रत्यक्ष रूप में ब्रिटिश कंपनी के पास आ गई जबकि बंगाल के लोगों की दृष्टि में प्रशासन का दायित्व स्वयं नवाब के सिर पर रहा, इसे द्वैध शासन (Dyarchy) का नाम दिया गया। इसे निम्नलिखित रूप में समझा जा सकता है -
ब्रिटिश कंपनी ने एक उपनवाब के पद का सृजन किया और नवाब से शक्ति छीन कर उपनवाब के पद में निहित कर दी। उपनवाब के पद पर उस व्यक्ति की ही नियुक्ति हो सकती थी जिसकी नियुक्ति की अनुशंसा ब्रिटिश कंपनी द्वारा की जाती थी।
वॉरेन हेस्टिंग्स (1772-1785) के द्वारा किये गये प्रशासनिक सुधार
वॉरेन हेस्टिंग्स के द्वारा राजस्व तथा न्याय व्यवस्था के क्षेत्र में सुधार किये गए जो की निम्नलिखित थे -
1. राजस्व सुधार
A. चुंगी वसूली
पहले जमींदारों के द्वारा जगह-जगह चुंगी वसूली जाती थी और चुंगी का कोई मानक दर भी निश्चित नहीं होता था। परंतु वॉरेन हेस्टिंग्स ने केवल 5 स्थानों पर चुंगी वसूलने की व्यवस्था की तथा चुंगी की मानक दर भी तय कर दी गई। ये पांच स्थान थे -
- कोलकाता
- मुर्शिदाबाद
- हुगली
- ढाका
- पटना
B. भू-राजस्व सुधार
भू-राजस्व सुधार प्रयोग की प्रक्रिया से ही गुजरता रहा, इसमें वॉरेन हेस्टिंग्स को कोई विशेष सफलता नहीं मिली। उसने 1772 में एक 5 साला योजना लागू की, इसके तहत सर्वाधिक बोली लगाने वाले को भू-राजस्व वसूलने का अधिकार दिया गया। इस पद्धति को फार्मिंग पद्धति का नाम दिया गया। आगे इसे 5 साल से घटाकर 1 साल कर दिया गया। परंतु इससे कृषि व किसान दोनों को नुकसान हुआ। आगे लॉर्ड कॉर्नवालिस ने इससे सबक लिया और एक नई भू-राजस्व व्यवस्था अपनाई।
2. न्याय व्यवस्था में सुधार
A. संस्थागत सुधार
वॉरेन हेस्टिंग्स ने फौजदारी और दीवानी दोनों के लिए पृथक-पृथक न्यायालयों की स्थापना की। फौजदारी न्यायालय में नीचे जिला न्यायालय था। वह किसी मुस्लिम विधि विशेषज्ञ अर्थात काजी एवं मुफ्ती के अंतर्गत रखा जाता था। उसके ऊपर सदर निजामत अदालत थी जिसे एक भारतीय अधिकारी के अंतर्गत रखा जाता था। जिसकी सहायता के काजी एवं मुफ़्ती होते थे। फौजदारी न्यायालय में मुस्लिम कानून चलते थे।
सदर निजामत अदालत
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जिला न्यायालय
उसी प्रकार दीवानी न्यायालय के लिए जिला दीवानी अदालत होती थी, जो जिला कलेक्टर की अधीन होती थी। उसके ऊपर सदर दीवानी अदालत होती जो गवर्नर जनरल तथा उसकी परिषद के अधीन होती थी।
B. विधि व्यवस्था में सुधार
वॉरेन हेस्टिंग्स का मानना था कि भारतीयों पर भारतीय परंपरा के अनुसार शासन किया जाना चाहिए। अतः उसने ब्राह्मणों के एक समूह और उलेमाओं के समूह की सहायता से क्रमशः हिंदुओं और मुसलमानों के कानूनों का विधि संग्रह तैयार करवाया था जिसे "कोड ऑफ जेंटू लॉज कोलब्रुक्स डायजेस्ट" (Code of Gentoo Laws Colebrooke Digest) कहा जाता था।
लॉर्ड कॉर्नवालिस (1786-1793) के द्वारा किये गये प्रशासनिक सुधार
लॉर्ड कार्नवालिस का काल विभिन्न प्रकार के सुधारों के लिए जाना जाता है। जहां तक भू-राजस्व और न्याय सुधार की बात है तो वह इस काल में लगभग सभी प्रशासकों का लक्ष्य रहा था। परंतु कार्नवालिस के समय कुछ अतिरिक्त सुधार भी हुए हैं तथा इसका एक बड़ा कारण रहा था की अमेरिकी उपनिवेश खोने के बाद ब्रिटिश सरकार भारत पर बेहतर पकड़ बनाना चाहती थी। लॉर्ड कार्नवालिस द्वारा किये गए सुधार निम्नलिखित थे -
1. भू-राजस्व सुधार
A. स्थायी बंदोबस्त
कॉर्नवालिस द्वारा स्थायी बंदोबस्त/व्यवस्था को लागू किया गया। स्थायी बंदोबस्त के बारे में अधिक जानने के लिए आप इस लेख को पढ़ सकते है - स्थायी बंदोबस्त क्या था और इसका भारतीय किसानों पर क्या प्रभाव पड़ा?
2. न्यायिक सुधार
लॉर्ड कॉर्नवालिस ने न्यायिक क्षेत्र में संस्थागत सुधार किये व विधि के शासन की स्थापना करने का प्रयास किया।
A. संस्थागत सुधार
संस्थागत सुधारों के अंतर्गत दीवानी और फौजदारी न्यायालय की श्रृंखला स्थापित की गई जो निम्नलिखित है -
दीवानी न्यायालय
- किंग-इन-कौंसिल
- सदर दीवानी अदालत
- प्रांतीय न्यायालय
- जिला दीवानी अदालत
- रजिस्ट्रार की अदालत
- मुंसिफ की अदालत
फौजदारी न्यायालय
- सदर निजामत अदालत
- सर्किट कोर्ट
- जिला फौजदारी अदालत
B. विधि के शासन की स्थापना
विधि के शासन की स्थापना के अंतर्गत लॉर्ड कॉर्नवालिस ने निम्नलिखित कार्य किये -
- कॉर्नवालिस कोड (1793 ई.) के आधार पर जिला कलेक्टर से दीवानी अधिकार लेकर जिला जज को दे दिए अर्थात शक्ति का पृथक्करण किया।
- कुछ प्रचलित मुस्लिम कानूनों को अधिक मानवीय बनाया।
3. सिविल सेवा में सुधार
लॉर्ड कॉर्नवालिस ने जिला कलेक्टर से न्यायिक शक्ति लेकर उसे केवल प्रशासन का अधिभार दे दिया। उसका काम राजस्व संग्रह करना था तथा उसका वेतन ₹1500 मासिक निर्धारित किया गया। इसके अतिरिक्त उसे वसूले गए राजस्व पर 1% कमीशन प्राप्त होता था। इस प्रकार भारतीय सिविल सेवा विश्व में सबसे अधिक वेतनमान सेवा बन गई। लॉर्ड कॉर्नवालिस को भारत में सिविल सेवा का जनक कहा जाता है।
4. पुलिस सेवा में सुधार
भारत में आधुनिक पुलिस सेवा आरंभ करने का श्रेय लॉर्ड कॉर्नवालिस को जाता है। उसने थाना व्यवस्था की शुरुआत की तथा प्रत्येक थाने को एक 'दरोगा' नामक अधिकारी के अंतर्गत रखा। उसके ऊपर Superintendent of Police (SP) के पद का सृजन किया गया।
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