आधुनिक भारत के इतिहास के पिछले लेख में हमने जाना की Upniveshvad Kya Hai? तथा उपनिवेशवाद (Colonialism) के कौन-कौन से चरण होते है?। आज के इस लेख में हम उपनिवेशवाद के पहले चरण अर्थात 'वाणिज्यिक चरण' (1757-1813) के बारे में चर्चा करेंगे और इसके बारे में विस्तार से जानेंगे। इस चरण को बेहतर तरीके से समझने के लिए हम इस अवधि में अलग-अलग क्षेत्रों जैसे राजनीतिक, प्रशासनिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक में बांटकर पढ़ेंगे और इनमें हुए परिवर्तनों को जानेंगे।
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उपनिवेशवाद का पहला चरण: वाणिज्यिक चरण
इतिहासकारों ने उपनिवेशवाद के पहले चरण को 'वाणिज्यिक चरण' नाम दिया है और इसकी अवधि 1757 से 1813 मानी है। इस चरण में ईस्ट इंडिया कंपनी का उद्देश्य रहा था - "बंगाल से अधिकतम राजस्व का संग्रह कर उसे भारतीय व्यापार में निवेशित करना"।
जो महानगरीय राज्य/मातृदेश के लिए पूंजीवाद है वो उपनिवेश के लिए उपनिवेशवाद है अर्थात ब्रिटेन में वाणिज्यिक चरण का पूँजीवाद है जिसका बल भारत से बड़ी मात्रा में वस्तुएँ प्राप्त करने और उनका निर्यात करके मुनाफा कमाने में है। वहीं भारत के संदर्भ में वाणिज्यिक चरण का उपनिवेशवाद है जिसके तहत ब्रिटिश नीति का बल है की बंगाल से प्राप्त राजस्व का एक बड़ा भाग बचाया जाए तथा उससे भारतीय वस्तुओं की खरीद की जाएं। इसलिए इस चरण में ब्रिटिश कंपनी अपने खर्चे और दायित्व सीमित रखना चाहती थी। उसकी नीति का प्रभाव ब्रिटिश की राजनीतिक, प्रशासनिक, सामाजिक और सांस्कृतिक सभी नीतियों पर देखा गया।
चलिए अब देखते है की इस चरण में ईस्ट इंडिया कंपनी ने अलग-अलग क्षेत्रों में कौन-कौन सी नीतियां अपनाई थी -
1. वाणिज्यिक चरण की राजनीतिक नीतियां
वाणिज्यिक पूँजीवाद के चरण में ब्रिटिश कंपनी का उद्देश्य, ब्रिटिश वाणिज्यिक पूँजीवाद के हितों से प्रेरित था और वह था - "भारत से बड़ी मात्रा में व्यापारिक वस्तुओं का संग्रह और निर्यात कर कर उससे मुनाफा कमाना"। वहीं इन वस्तुओं की खरीद भी भारतीय धन से ही की गई, इसलिए बंगाल में राजस्व संग्रह बढ़ाना और उसकी बचत करना भी जरुरी था और इसके लिए कंपनी के अन्य खर्चों और दायित्वों को सीमित रखना आवश्यक था।
इसलिए यद्यपि अपने व्यापारिक उद्देश्य को पूरा करने के लिए ब्रिटिश कंपनी ने युद्ध लड़े तथा कुछ भू-भाग का अधिग्रहण भी किया किन्तु सामान्यतः उनकी नीति रही थी की जहाँ तक संभव हो सके युद्ध और भू-भाग के अधिग्रहण को टालना।
वाणिज्यिक चरण के गवर्नर तथा गवर्नर जनरल
गवर्नर
- रॉबर्ट क्लाइव (1757-60 एवं 1765-67)
- वेरलेस्ट (1767-69)
- कार्टियर (1769-72)
गवर्नर जनरल
- वारेन हेस्टिंग्स (1772-85)
- कार्नवालिस (1786-93)
- जॉन शो (1793-98)
- लार्ड वेलेजली (1798-1805)
- अर्ल ऑफ़ मिंटो (1807-13)
2. प्रशासनिक नीतियां
वाणिज्यिक पूँजीवाद के हित से प्रेरित होने के कारण कंपनी का उद्देश्य अधिक से अधिक व्यापार में निवेश करने पर रहा था, इसलिए कंपनी अपना दायित्व कम करना चाहती थी यहीं वजह है की इस काल में ब्रिटिश कंपनी का बल प्रशासन के क्षेत्र में कुछ परिवर्तनों के साथ प्रचलित मुग़ल ढाँचे को ही बनाकर रखने पर था। इस काल में अगर परिवर्तन देखा गया या तो राजस्व के क्षेत्र में या फिर न्याय व्यवस्था के क्षेत्र में। वाणिज्यिक चरण के दौरान ब्रिटिशों द्वारा राजस्व के क्षेत्र में किए गए परिवर्तनों के बारे में अधिक जानने के लिए आप इस लेख को पढ़ सकते है -
ब्रिटिश सरकार और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच संबंधों को स्पष्ट करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने 1773 में रेग्यूलेटिंग अधिनियम तथा 1784 में पिट्स इंडिया एक्ट पारित किया। इसके साथ ही ब्रिटिश संसद द्वारा समय-समय पर चार्टर अधिनियम भी लाये गए। रेग्यूलेटिंग अधिनियम, पिट्स इंडिया एक्ट और चार्टर अधिनियम क्या थे और इनमें क्या-क्या प्रावधान थे? ये जानने के लिए आप इन लेखों को पढ़ सकते है -
- 1773 का रेग्यूलेटिंग अधिनियम क्या था? इसकी पृष्ठभूमि, प्रावधान तथा उद्देश्य
- पिट्स इंडिया एक्ट क्या था?
- 1793, 1813, 1833 व 1853 के चार्टर एक्ट
वाणिज्यिक चरण के दौरान ब्रिटिश कंपनी द्वारा भारत में किये गए प्रशासनिक सुधारों के बारे में अधिक विस्तार से जानने के लिए आप इस लेख को पढ़ सकते है - वाणिज्यिक चरण (1757-1813) के दौरान भारत में हुए प्रशासनिक सुधार
3. आर्थिक नीतियां
A. धन की निकासी का आरम्भ
इस काल में भारत से ब्रिटेन की ओर धन की निकासी का आरम्भ देखा गया। धन की निकासी से तात्पर्य है की आयात की तुलना में निर्यात को अधिक रखना और उससे जो रकम प्राप्त हो उसे भारत से बाहर हस्तांतरित करना, दूसरे शब्दों में ब्रिटिश कंपनी जो पहले भारत से वस्तुओं का निर्यात करती थी उसके बदले ब्रिटेन से कीमती धातु लाती थी परंतु अब बंगाल की दीवानी से प्राप्त रकम के एक भाग से भारतीय वस्तुएं खरीदी जाने लगी। इसका अर्थ था की जिन भारतीय वस्तुओं का निर्यात हुआ उनके बदले भारत को कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ।
B. बंगाल के दस्तकारों (शिल्पी) का शोषण
पहले बंगाल के दस्तकार विभिन्न कंपनीयों के हाथों अपनी वस्तुएं बेचकर मुनाफा कमाते थे परंतु अब ब्रिटिश कंपनी ने अनेक विधियों के द्वारा उन पर नियंत्रण स्थापित कर लिया और अब उन्हें अधिक मूल्य पर कच्चा माल दिया जाने लगा जबकि कम मूल्य पर उनसे वस्तुएं खरीदी जाने लगी। इस कारण उन पर आर्थिक दवाब बढ़ गया और वे भुखमरी के शिकार हो गये।4. सामाजिक नीतियां
सामाजिक क्षेत्र में ब्रिटिश कंपनी ने परंपरागत सामाजिक मॉडल को ही बनाये रखने पर बल दिया क्योंकि समाज सुधार की नीति को क्रियान्वित करने से उसे तत्काल कोई लाभ नहीं था। इसके विपरीत भारतीयों में असंतोष उत्पन्न हो सकता था।
5. सांस्कृतिक नीतियां
ब्रिटिश कंपनी ने सांस्कृतिक क्षेत्र में 'प्राच्यवाद' पर बल दिया। प्राच्यवाद का अर्थ है की "भारतीय अतीत और संस्कृति के अध्ययन में रूचि लेना"। उस समय भारत में काम करने वाले अनेक ब्रिटिश अधिकारी थे जो अपने दृष्टिकोण में प्राच्यवादी थे यथा - विलियम जोंस, कोलब्रूक्स, विल्किन्स, वॉरेन हेस्टिंगस आदि।
1784 में बंगाल में विलियम जोंस के द्वारा "एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल" की स्थापना की गई। इसके माध्यम से प्राचीन ग्रंथों के अध्ययन और अन्वेषण (Investigation) पर बल दिया गया। आगे चलकर एक पुरातत्व विभाग की स्थापना भी गई तथा इसके माध्यम से प्राचीन स्थापत्य, सिक्कों, स्मारकों, अभिलेख आदि का अन्वेषण आरंभ हुआ। इसका बल इस बात पर भी रहा था की भारतीयों को उनके रीति-रिवाजों, परम्परों के आधार पर शासन किया जाना चाहिए। अतः वॉरेन हेस्टिंगस ने ब्राह्मणों एवं उलेमाओं के एक समूह के माध्यम से प्राचीन हिन्दू एवं मुस्लिम विधि संग्रह के निर्माण की पहल की।
फिर आगे लार्ड वेलेजली ने 1800 में Civil Servant को प्रशिक्षण देने के लिए Fort William College की स्थापना की परन्तु आगे Court of Directors ने इसे बंद कर लंदन के हेलबरी में इस प्रकार के कॉलेज की स्थापना कर दी। ब्रिटिश के द्वारा कुछ कुलीन मुस्लिम और हिन्दू परिवारों के बच्चों को सरकारी सेवा के योग्य बनाने के लिए कुछ शिक्षण संस्थानों की स्थापना की जैसे की वॉरेन हेस्टिंगस ने कलकत्ता में मदरसा की तथा जोनाकन डंकन ने 1791 में बनारस में एक संस्कृत कॉलेज की स्थापना की।
लेकिन यहाँ ध्यान रखने योग्य बात यह है की ब्रिटिशों की इन सभी नीतियों के पीछे उनका औपनिवेशिक हित निहित था। वाणिज्यिक पूंजीवाद के काल में ब्रिटिश कंपनी का बल यथासंभव अपने दायित्व कम रखने के लिए सुधार एवं परिवर्तन से परहेज करना था। अतः ब्रिटिश प्राच्यवाद का दर्शन उसके इस उद्देश्य के अनुकूल था।
प्राच्यवाद के माध्यम से ब्रिटिश ने हमें जो ज्ञान दिया वह एक औपनिवेशिक ज्ञान (Colonial Knowledge) था अर्थात ब्रिटिश ने हमारी संस्कृति की उसी प्रकार व्याख्या की जो वह देना चाहते थे।
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