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मैंग्रोव (Mangrove)
उष्ण और उपोष्ण कटिबंधीय समुंद्र तटीय क्षेत्रों में पाए जाने वाले वृक्षों एवं झाड़ियों के ऐसे समूह जिनमें लवणीय जल को सहन करने की अच्छी क्षमता होती हैं, मैंग्रोव कहे जाते हैं। अधिक ठंडे जल में अपने आप को अनुकूलित न कर पाने के कारण ही मैंग्रोव का विकास इन दो कटिबंधों में होता हैं। मैंग्रोव पौधे "न्यूमेटोफोर्स जड़ों" की मदद से प्रतिकूल परिस्थितियों में भी श्वसन कर लेते हैं। इन पौधों की जड़ें मुख्य शाखाओं से भी फूटती रहती हैं जिन्हे "स्टिल्ट" कहा जाता हैं।
पारिस्थितिकीय पिरामिड (Ecological Pyramid)
किसी खाद्य श्रृंखला में अलग-अलग पोषण स्तर के जैविक समुदाय के बीच उनकी संख्या, जैवभार, उत्पादकता तथा ऊर्जा के आधार पर किया गया चित्रित प्रदर्शन जो सामान्यतः एक सीधे या उल्टे पिरामिड की तरह होता हैं, पारिस्थितिकी पिरामिड कहलाता हैं। यह मुख्यतः 3 प्रकार के होते है - संख्या पिरामिड, जैवभार पिरामिड और ऊर्जा पिरामिड। ऊर्जा पिरामिड हमेशा सीधा ही हैं।
पारिस्थितिकी निकेत (Ecological Niche)
एक प्रजाति को जीने के लिए जिन जैविक, भौतिक या रासायनिक कारकों की जरुरत होती हैं, उन सब को सम्मिलित रूप से निकेत कहते हैं। अर्थात निकेत से तात्पर्य पारितंत्र में किसी प्रजाति के विशिष्ट स्थान और भूमिका से हैं। इसलिए ही किन्हीं दो भिन्न प्रजातियों के लिए एक निकेत नहीं हो सकता हैं। चूकिं हर प्रजाति का अपना अलग निकेत होता हैं, इसलिए उनके प्राकृतिक आवास के संरक्षण के लिए उनके विशिष्ट निकेत की जानकारी जरुरी हैं। निकेत के कई प्रकार होते हैं - खाद्य निकेत, आवास निकेत आदि।
एक़्वापोनिक्स (Aquaponics)
यह दो खाद्य उत्पादन प्रणालियों - एक़्वाकल्चर और हाइड्रोपोनिक्स को एक साथ जोड़ता हैं। एक़्वाकल्चर का तात्पर्य मत्स्य पालन से हैं तथा हाइड्रोपोनिक्स मृदा की बजाय जल में पौधा उगाने की तकनीक हैं। इस प्रकार एक़्वापोनिक्स में मत्स्यन के साथ-साथ पौधों को भी एकीकृत उगाया जाता हैं। यह एक पर्यावरण अनुकूल विधि हैं जहाँ दोनों इकाइयाँ एक-दूसरे के पोषण में योगदान देती हैं।
जैव-संचयन (Bio-Accumulation)
यह एक ऐसी प्रक्रिया हैं जिसमें हानिकारक पदार्थों का संचयन किसी जीव में होता हैं तथा लगातार उसका संचयन होता चला जाता हैं। ऐसा इसलिए होता हैं क्योंकि ये पदार्थ सामान्यतः नष्ट नहीं होते हैं। DDT इसका एक उदाहरण हैं जो जीव में प्रवेश करने के बाद नष्ट नहीं होता हैं। एक जीव में संग्रहीत ये पदार्थ जब आहार श्रृंखला के माध्यम से दूसरे जीव में प्रवेश करते हैं तो इसे ही "जैव आवर्द्धन" कहते हैं।
टारबॉल (Tarball)
टारबॉल प्रकाश को अवशोषित करने वाले छोटे कार्बनयुक्त कण होते हैं, जो बायोमास या जीवाश्म ईंधन के जलने के कारण उत्सर्जित होते हैं और बर्फ की चादर पर जमा होते रहते हैं।
टारबॉल को जलवायु परिवर्तन के मुख्य कारकों में गिना जाता है। हिमालयी क्षेत्र में भी हिमनद पिघलने के लिए टारबॉल को उत्तरदायी माना जाता हैं। टारबॉल का प्रतिशत प्रदुषण के उच्च स्तर के दिनों में बढ़ जाता हैं।
प्रवाल विरंजन (Coral bleaching)
प्रवाल पर निर्भर रहने वाले 'जुजैंथेले शैवाल' जब पर्यावरणीय घटकों के नकारात्मक प्रभाव कारण उनके ऊपर से हट जाते है, तो प्रवाल अपने वास्तविक सफेद रंग में आ जाते हैं, इसे ही प्रवाल विरंजन कहते हैं। दरअसल, ग्लोबल वार्मिंग से जुजैंथेले शैवाल प्रकाश संश्लेषण की अपनी दर को अत्यधिक तीव्र कर देते हैं जिससे प्रवाल के ऊतकों में ऑक्सीजन का स्तर काफी बढ़ जाता हैं। इसे प्रतिसंतुलित करने के लिए प्रवाल जुजैंथेले को अपने शरीर से निकाल देते हैं, जिससे वो सफेद दिखने लगते हैं।
सुपोषण (Eutrophication)
इसका आशय किसी जलाशय में पोषक तत्वों के आधिक्य से हैं। ये पोषक तत्व मुख्यतः नाइट्रोजन और फॉस्फोरस होते हैं। इससे जलाशय में पादप और शैवाल की वृद्धि तेज हो जाती हैं, जिससे जल में घुलित ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाती हैं। इस प्रकार सुपोषण से जलीय जीवों के समक्ष गंभीर खतरा उत्पन्न हो जाता हैं। सुपोषण के कारण ही जलाशयों में हरे रंग की परत जम जाती हैं।
अपघटक (Decomposer)
ये एक प्रकार के परपोषी हैं। ये मृत जन्तुओं और पौधों मौजूद जटिल कार्बनिक पदार्थों को सरल अकार्बनिक पदार्थों में तोड़ देते हैं। ये भोजन का पाचन नहीं करते बल्कि मृत पदार्थों पर अपने एंजाइम का स्राव कर उन्हें अपघटित कर देते हैं। इससे प्राप्त सरल अकार्बनिक पदार्थों का ये सीधे अवशोषण कर लेते हैं।
गहन पारिस्थितिक (Deep Ecology)
यह पर्यावरणीय नैतिकता से सम्बंधित एक विचार हैं, जो यह मानता हैं की प्रकृति के सभी अंग एक-दूसरे से प्रभावित होते हैं और एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। यह विचार मानवीय श्रेष्ठता को खारिज करता हैं तथा सभी प्राणियों के बुनियादी नैतिक और कानूनी अधिकारों को स्वीकार करता हैं। इसके अनुसार हर जीवित प्राणी का एक स्वतंत्र जीवन होता हैं, इसलिए उन्हें सिर्फ 'संसाधन' के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए।
"आर्ने नेस" इस सिद्धांत का जनक माना जाता हैं।