एक और एग्जाम : Hindi Story
माँ - ट्रेन मिल गई ना बेटा...
बेटा - हां, मिल गई
माँ - बैठने को सीट मिली या नहीं..... बोला था, रिजर्वेशन करा लिया कर !
बेटा - अरे मिल गई सीट, पूरा डिब्बा खाली हैं, वो रिजर्वेशन जल्दी में नहीं करा पाया।
माँ - ठीक हैं, किसी से लड़ना-झगड़ना नहीं और कोई कुछ खिलाए तो खाना मत, जब पहुंच जाये तो होटल में रुक जाना और अच्छी जगह खाना खा लेना।
बेटा - हाँ, हाँ पता हैं, अरे रुक जाऊंगा खा भी लूंगा।
ये था, वो सच जो सबको दिखता हैं, पर असल में.....
वो लड़का, जो कभी एक मच्छर काटने पर सो नहीं पाता था, जो अच्छा खाना ना मिलने पर पूरा घर सर पर उठा लेता था.....
वो अब सारी रात स्टेशन में गुजारने लगा हैं, वो भी वहीं सो जाता हैं। एक मिक्सचर नमकीन और बिस्कुट खाकर रात गुजारने लगता हैं।
वो अब माँ से झूठ बोलने लगा हैं। उसे नहीं पता ये एग्जाम आखिरी हैं या अभी ये सफर और कितना लम्बा होगा। उसे ये भी नहीं पता की एग्जाम देने के बाद जब कोई पूछता हैं, कैसा गया? तो उसे क्या जवाब दे ?
लाखों स्टूडेंट्स बैठते हैं एग्जाम में जिसमे सेलेक्शन सिर्फ कुछ हजार का ही होना हैं, पर उम्मीद उन लाखों के परिवारों की टूटती हैं। इन स्टूडेंट्स को तो ये भी नहीं पता की जॉब की तैयारी करते-करते वो कहां पहुँच गए। हार के बाद फिर से उठना होगा। हर बार 0 से स्टार्ट करना होगा।
पता हैं, उसे पता हैं, उसे सब कुछ पता हैं की वो बेहतर कर रहा हैं पर उसे फिक्र हैं.... की आगे ना जाने क्या होगा।
दही-चीनी की बातें तो बहुत पुरानी सी लगती हैं, अब यकीन भी नहीं होता क्योंकि स्टूडेंट्स जी जिंदगी में जो कड़वाहट घुली हैं, उससे किस्मत तो नहीं बनती होगी।
सच कहूँ तो बचपन कब निकल गया, पता ही नहीं चला, घर से कब जिम्मेदार बनने के सफर पर निकल गए या निकाले गए !
आसान नहीं होता, उस उम्र में घर से दूरियाँ बना लेना जिस वक्त हमें उनकी सबसे ज्यादा जरुरत होती हैं। आसान नहीं होता अपने बड़े-बड़े सपने बुनना या उन्हें सच बनाने के लिए पूरी दुनिया के खिलाफ खड़े होना !
जीत के मुसाफिरों के शहर में सपनो को हकीकत बनाने वाले स्टूडेंटस के साथ कोई खड़ा होना ही नहीं चाहता, यहाँ तक आते-आते ना जाने कितना कुछ पीछे छूट जाता हैं। वो लोग जिनके होने से हमें उम्मीद मिलती थी, वो कब बदलते हुई दिखते हैं, वो कोई दूसरा समझ नहीं सकता।
फिर से बोलता हूँ, ये बात सिर्फ संघर्ष की नहीं हैं क्योंकि स्टेशन पर रात गुजारने वाले, 2 समोसों में 2 दिन के पेपर का आना-जाना कर लेना, संघर्ष से तो नहीं डरते होंगे !
संघर्ष की पहली सीढ़ी तो उस दिन ही पार हो जाती हैं, जिस दिन माँ बोलती है, तू अपना ध्यान रखना, एग्जाम तो होते रहते हैं, "एग्जाम जिंदगी थोड़ी ही हैं"।
एग्जाम का सफर पता हैं कठिन कब बन जाता हैं, जब माँ मोहल्ले के लोगों और रिश्तेदारों से बोलती हैं की अरे वो एग्जाम के टाइम थोड़ा तबीयत ख़राब हो गयी थी तो अच्छे से पढ़ नहीं पाया था इसलिए कुछ नंबर से सेलेक्शन नहीं हुआ, अभी उसके और भी एग्जाम हैं, उसमे हो जायेगा।
सच बोलू तो ये सब डरावना लगता हैं।
अब वो स्टूडेंट ऐसे दौर में पहुंच गया हैं जहां रिश्तेदारों से बात करना बंद कर चूका है, कोई ख़ास दोस्त भी नहीं हैं। प्रेम में सिर्फ यादें बचीं हैं, अब उसे हार-जीत से फर्क काम पड़ने लगा हैं क्योंकि उसे जिंदगी ने वो सीखा दिया हैं जो कभी किताबों में पढ़ाया ही नहीं गया।
वो स्टूडेंट्स हैं रुकेंगे, गिरेंगे, उठेंगे, फिर से कोशिश करेंगे, पर हार नहीं मानेगे क्योकि "एग्जाम, जिंदगी तो नहीं हैं पर उसके लिए उससे कम भी नहीं हैं"।
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