अब तक कहानी के दो हिस्सों में आपने पढ़ा की "मोहब्बत में गिरफ्तार चाचा शकूरन से मिलकर मजार से लौटते हैं तो वहां उनको उनके पुराने दोस्त और अब दुश्मन मंसूर खान का बेटा सिराज दिखता हैं जो शहर में सेल्स की नौकरी करने की वजाय बस में दवाई बेच रहा हैं। मोहल्ले में कहता था किसी बड़ी कंपनी में काम करता हैं"। क्या चाचा ये बात अपने पेट में पचा पाएंगे? और क्या होगा उनकी मोहब्बत का? चलिए बढ़ते हैं आगे... कहानी के तीसरे और आखरी हिस्से पर....
बस में एक तरफ सिराज था, चेक वाली कमीज पहने, पैरों में चप्पल, कंधे पे झोला जिसमे से कुछ डिब्बे झांक रहे थे और एक डिब्बा उसके हाथ में था। उसकी आंखे ऐसी खुली हुई थी जैसे उसकी चोरी पकड़ ली गयी हो और दूसरी तरफ चाचा का पुरसुकून चेहरा था जो ख़ामोशी से कह रहा था, देखा बेटा, हमसे कुछ छुप नहीं सकता। सिराज और चाचा कुछ देर एक-दूसरे को देखते रहे और फिर सिराज समझ गया की जब जंग में हार करीब हो तो दुश्मन से बातचीत करके रास्ता निकालने को कहना चाहिए। इसलिए उसने इधर-उधर देखा और तेज कदमों से सीधे चाचा की तरफ बढ़ने लगा। उसने इरादा कर लिया की सीधे जाकर चाचा के पैरों में गिर जाना हैं और कहना हैं की, "चाचा आपको खुदा कसम हैं बस मेरा ये झूठ मोहल्ले में ना बताना किसी को। वो तेजी से पैर पर पैर रखे और माचिस की तिल्ली से दांत खुजा रहे चाचा की और बढ़ा की, तभी किसी ने उसका हाथ पकड़ लिया, ए भईया! दे रीहा हैं की एक छोटी बोतल? एक सहाब ने उसे रोककर कहा, अच्छा रात में इसे दूध से ले या पानी से? सिराज उसे झिडकते हुए बोला, "अबे रुको, यहां खेल हो गीया हैं और तुम्हे दूध, पानी की पड़ी हैं"। चाचा, चाचा, फिर वो रोते हुए चाचा के कदमों में गिर गया। हूउउ, तो जे हैं तुम्हायी सेल्स डिपार्टमेंट की नौकरी चाचा ने उसे तना मारा, सही जा रहे हो 'बाप मर गए अँधेरे में, बेटा पावरहाउस'! सही हैं भई सही हैं।
सिराज अपना झूठ पकडे जाने पर शर्मिंदा होकर बिचारा बार-बार यही कह रहा था की - चाचा बताना मत किसी को, तुम्हाये हाथ जोड़, पैर पड़ रहे हैं चाहे तो पूरा झोला ले लो लुकुमानी हलवे का। ए हटाओ इसे दूर करो, नैहैक रहा हैं बुरी तरह से, चाचा जरा बिदक के बोले। चाचा के पेट में मरोड़ तो उसी वक्त होने लगी थी और तो और सुबह से 3-4 अजनबियों को भी बता चुके थे। जाहिर हैं वे इस बात को मोहल्ले वालों को बताने से अपने आपको भी नहीं रोक सकते थे लेकिन तभी सिराज ने कहा, चाचा तुम्हे पीर मुर्शिद बाबा की कसम वहीं से आ रहे हो ना आप, जो दुआ मांग कर आ रहे हो वो कुबूल हो जाएगी। पीर मुर्शिद का जिक्र आते ही चाचा के दिमाग में शकूरन का चेहरा घूमने लगा और उसका ख्याल पुरानी टूयूबलाइट की तरह बुझ-बुझ के जलने बुझने लगा। सिराज हैं मंसूर का बेटा और मंसूर हैं शकूरन का मुंहबोला भाई। शकूरन, सिराज को मानती भी खूब हैं मतलब अगर मेरी मोहब्बत की गाड़ी में सिराज धक्का लगा दे तो बात बन सकती हैं। चाचा के चेहरे पे शैतानी मुस्कुराहट आ गई यानि अब उनको उनके इश्क़ के इम्तेहान का एक मददगार मिल गया था। मुस्कुराहट चाचा के चेहरे पर आने वाले कुछ हफ़्तों तक बनी रही। सिराज के पास रास्ता ही क्या था उसने चाचा को पूरी मदद करने का भरोसा दिला दिया।
हर जुमेरात चाचा इल्हाबलपुर की बस पकड़ते और डिपो से सिराज को लेते और मजार चले आते वहां सिराज को देखकर शकूरन बहुत खुश होती। हाय! मेरा बच्चा, मेरा बेटा कह कर उसके गले लग जाती और वो चाचा की तारीफों के पुल बाँधता रहता। शकूरन चाचा की तरफ शर्मा के देखती तो वो बड़प्पन वाली मुस्कुराहट के साथ कहते, अरे छोडो सिराज ये सब छोटी-छोटी बातें इनको क्या बताना भई। शकूरन चाचा से काफी मुतासिर होने लगी थी, सब कुछ सेट था, सब कुछ सही रास्ते पे आगे बढ़ रहा था लेकिन एक दिक्कत थी, हर हफ्ते इल्हाबलपुर जाना चाचा को बहुत महँगा पड़ने लगा था और वैसे भी बेचारे चाचा तो पेंशन पर थे।
लेकिन वो कहते हैं ना की जब इश्क़ सच्चा हो तो ऊपर वाला भी मदद करता हैं। वैसा ही कुछ हो गया चाचा के साथ वो चाय की टपरी वाले सूबेदार के साडू रोडवेज में थे, उसने चाचा का फ्री वाला पास बनवा दिया, तो चाचा ने उनका शुक्रियादा किया तो उन्होंने कहा, अरे शुक्रिया क्या चाचा आप हर हफ्ते नेक काम के लिए जाते हो तो सोचा कुछ मदद कर दे, काम-धंधा से वकत मिले तो हम खुद जाना चाहते हैं पीर बाबा की दरगाह में। चाचा मुस्कुराते हुए बोले, हाँ खैर ये तो हैं, सुकून तो बहुत हैं। तो अब बस इश्क़ के रास्ते में अब तो टिकट भी नहीं लगना था। चाचा बेधड़क रोडवेज बसों में सफर करते, सिराज अपना सामान बेचता और जुमेरात के दिन दोनों शकूरन से मिलते।
लगातार बस में सफर करने से कुछ मुसाफिरों से दोस्ती भी हो गयी थी। एक पत्रकार और क्रांतिकारी टाइप के खिचडीबाग वाले शख्स चाचा को अक्सर मिल जाते थे उस जुमेरात भी मिल गए। पत्रकारने कहा, तो आप मजार पे जाते हैं। तो चाचा बोले, जी जाता हूँ आप नहीं जाते। वो बोले नहीं, मजार पे जियारत काम होती हैं धंधा ज्यादा, मेला बना दिया साब मेला, हर तरफ दुकाने सजी हैं, कोई चाट-पकोड़ी बेच रह हैं तो कोई बिरयानी, कोई गाना बजा रह हैं तो कोई नाच रहा हैं। चाचा अपना कमानी वाला चश्मा ठीक करते हुए बोले, हाँ ये तो हैं, मैं तो खुद वह पे जा के लोगो को समझाता हूँ की भई ये सब ठीक नहीं हैं लेकिन वो क्या हैं की ये सब बाते जरा ऊची हैं हर आदमी कहाँ समझता हैं। उस खिचड़ीबाग़ वाले शख्स ने पान खिड़की से बाहर थूकते हुई कहा, अरे जब कौम, कलम का इस्तेमाल सिर्फ नाड़ा डालने के लिए और अखबार का इस्तेमाल सिर्फ पकोड़े खाने के लिए करती हो उससे और उम्मीद ही क्या कर सकते हैं। चर्चा में जब चाचा जब हलके पड़ने लग गए तो चाचा ने मुँह दूसरी तरफ घुमा लिया।
बरहाल एक तरफ चाचा की मुलाकातें शकूरन से बढ़ती चली जा रही थी और वहीं दूसरी तरफ चाचा एक बार फिर एक धर्मसंकट में पड़ गए थे। हुआ यू की एक रोज सूबेदार चाय वाले ने मोहल्ले के कुछ खास लोगो को अपने घर पे बिरयानी की दावत के लिए बुलाया था चाचा का नाम भी उसमे शामिल था। जाहिर हैं हर हफ्ते मजार पर जाने वाले नेक और मौजिज आदमी थे उनको कैसे ना बुलाते। बिरियानी की दावत हुई, चाचा ने खूब दवा के खाया लेकिन 3 दिन बाद नुक्कड़ पर रहने वाले रसूल हलवाई ने चाचा को बताया की सूबेदार ने बिरयानी की दावत इसलिए की थी क्योकि एक सस्ता बकरा मिल गया था उसको मंडी से। उसने कहा, देखो चाचा ये बात हम तुमको बता रहे हैं लेकिन और किसी को मत बताना कसम खुदा की कह रहे दिक्कत हो जाएगी, बकरा मंडी में एक बकरा बिक रहा था बहुत सस्ता मालूम क्यों? एक कान नहीं था उसका, कनकटा था बकरा खरीद लाये कर दी दावत, हमने देखा अपनी आँखों से लेकिन किसी से कहना मत, किसी से भी। चाचा के पेट में मरोड़ तो उठने लगी, अब तो ये बात वो पुरे मोहल्ले में बताना चाहते थे लेकिन दिक्कत ये थी की अगर बताते तो सूबेदार रोडवेज बस का फ्री पास कैंसिल करवा देता। खैर, चाचा ने इस राज को किसी तरह राज ही रखने की कोशिश की क्योंकि इस वक्त सबसे जरुरी मामला इल्हाबलपुर में चल रहा था और वहां आना-जाना बहुत जरुरी था।
एक जुमेरात जब चाचा और सिराज इल्हाबलपुर पहुंचे तो क्या देखते हैं की मजार पे तो पहले जैसा ही माहोल हैं लेकिन शकूरन थोड़ा उदास हैं। क्या हुआ शकूरन फूफी सब खैरयत तो हैं? सिराज ने अपना झोला पीछे करते हुए पूछा तो वो बोली, "हां, तकलीफ में हूँ मैं औलिया की इस दरगाह में अपना मुकाम चाहती हूँ मुझे पीर की तब्लीगी मुरीद बनाना हैं"। चाचा हैरानी से बोले, ये तब्लीगी मुराद क्या होता हैं? उन्होंने बताया की तब्लीगी मुराद वो होता हैं जो दरगाह के साथ सीधे जुड़ जाता हैं, उसका रजिस्ट्रेशन हो जाता हैं लेकिन उसके लिए पहले कुछ सदका देना पड़ता हैं। आसान शब्दों में यूँ समझ लीजिये की शकूरन दरगाह की परमानेंट मेंबर बनना चाहती थी वो भी पीले कपडे पहनने वाली पक्की मुरीद लेकिन दरगाह के नियम के मुताबिक उसके लिए उनको कुछ गरीब लड़के-लड़कियों की शादी के लिए चंदा देना था। अब आप इसे डोनेशन या घुस समझ लीजिये, परमानेंट मेंबर बनने के लिए ये देनी पड़ती थी। देख रहे हैं आप लोग कितना मुश्किल हैं इस दौर में ईमान बचाए रखना, इन लोगों को कितना समझाया की ये तो लूट हैं लेकिन कहां कोई समझता हैं, शकूरन बोली। चाचा ने अपना पतली कमानी वाला चश्मा बराबर किया और गला खकार के बोले, "जो कौम कलम का इस्तेमाल सिर्फ नाडा डालने के लिए और अखबार का इस्तेमाल सिर्फ पकोड़े खाने के लिए करती हो उससे और उम्मीद ही क्या कर सकते हैं?
शकूरन और सिराज ने यूँ देख की खिलाडी ने आखरी गेंद पे छक्का मर दिया हो और चाचा ने उनकी तरफ यूँ देखा जैसे छक्का मरने के बाद कोई खिलाडी पब्लिक की तरफ देखकर तालियाँ कबूल करता हैं। शकूरन काफी मुतासिर हो गयी थी लेकिन चाचा को भी मोहब्बत सच्ची वाली हुई थी कोई ऐरी-गैरी नहीं। उन्होंने शकूरन से वादा किया की, पैसों का इंतजाम वो कर देंगे कहीं से भी करे। इसका भी एक प्लान था उनके दिमाग में लेकिन काश उनको पता होता की ये पैतरा उनको बहुत भारी पड़ने वाला था।
सिराज रोज की तरह बस में अपना सामान बेच रहा था पर आज पिछली सीट पर बैठे चाचा का ध्यान कहीं और था। खिचडीबाग वाले पत्रकार उनसे बात करने की कोशिश कर रहे थे लेकिन चाचा शायद सोच रहे थे की, लोग तो मोहब्बत में आसमान से सितारे तक तोड़ के ले आते है और मैं थोड़े से रुपियों का इंतजाम भी नहीं कर पा रहा हूँ। एक छोटा-सा बैग बगल में दबाए वो बस की खिड़की से पीछे जाते हुए मंजर को देख रहे थे। सूरज दूर उस आखरी खेत के मचान के ऊपर था, हवा चलती तो धूल सीसे से अंदर आने लग जाती।
भई, इल्हाबलपुर वाले उतरो बस स्टैंड आ गया-कंडक्टर ने आबाज लगाई तो चाचा का ध्यान टुटा। बस से वो और सिराज दोनों उतरे आज जुमेरात को दोनों को मजार जाना था या यूँ कहिये शकूरन से मिलने जाना था। तभी सिराज बोला, "चाचा आधे घंटे का काम हैं निपटा ले फिर चलते हैं दरगाह, क्या काम हैं? चाचा ने पूछा तो वो बोला, "अब्बा का काम हैं दूकान के लिए कुछ सामान लाने के लिए बोला हैं, बस यही पास की दूकान तक जाना हैं"। चाचा ने हामी भरी और दोनों उस दूकान की तरफ चल दिए। कुछ देर बाद सिराज उनको लेकर एक गली में दाखिल हुआ शायद कोई मार्केट थी जहाँ लोहे का सामान मिलता था। एक पुरानी सी दूकान के सामने ले जाके बोला, "अभी रुकिए मैं बस दो मिनट में आया फिर चलते हैं दरगाह"। इतना कहकर वह दूकान के काउंटर पर जाके खरीदारी करने लगा। चाचा गौर से देख रहे थे की चक्कर क्या हैं, उन्होंने किसी राह चलते शख्स से पूछा की यहां क्या मिलता हैं? तो वो बोला, "चाचा यहाँ तराजू वाले बाँट मिलते हैं जो वजन में कम होते हैं"। मतलब, चाचा ने फिर पूछा तो वह बोला, "घटतौली करने के काम आवे, बाँट होगा 1 किलो का पर तोलेगा 750 ग्राम, झोल हैं भइया झोल"। चाचा का पेट फिर भारी होने लगा, मंसूर तो पूरा फ्रॉड निकला, बड़ी ईमान की बातें करता था, अब बताता हूँ उसको मिलने दो जरा शरीफजादे को। वो सोच ही रहे थे की सिराज लौटा और बोला, "चाचा चलिए चलते हैं, ए रिक्शा दरगाह चलोगे"? चाचा ने उसे तिरछी निगाह से देखा और रिक्शे में बैठ गए, चाचा के पेट में मरोड़ तो उसी वक्त शुरू हो गयी थी मन कर रहा था की फ़ौरन जाके शकूरन को बता दे की तुम्हाये मुँहबोले भाई सिर्फ बातों में अल्लाह वाले हैं असल में ये करम हैं इनके, घटतौली करते हैं घटतौली, लेकिन अभी ये रिस्क लेना ठीक नहीं था।
उस वक्त मौसम थोड़ा गरम था शाम के साये में भी तपिस शामिल थी, दरगाह के आँगन में एक तरफ पीले कपडे पहने कुछ औरतें बैठी हुई थी, दूसरी तरफ फकीरों को खाना खिलाया जा रहा था, कुछ लोग कब्बाली गा रहे थे, सामने मजार पे रौशनी थी वही एक किनारे पे उदास बैठी थी शकूरन। वो मायूस थी लेकिन फिर भी आँखों में काजल लगाया हुआ था। चाचा ने महसूस किया की जब से उनकी मुलाकात होना शुरू हुई थी शकूरन और भी खूबसुरत हो गयी थी। अरे फूफीजान, सिराज ने आबाज लगाई तो उसने उस तरफ देखा, अदब से सलाम किया। चाचा और सर पे रुमाल बांधे सिराज उनके करीब पहुंचे और उनके पास बैठ गए।
उनके बालों की लटे उनके चेहरे पर गिर रही थी, चाचा शकूरन का चेहरा देखकर सुकून हासिल कर रहे थे। ये लीजिये हो गया इंतजाम, चाचा ने बगल में दबाये बैग से कुछ पैसे निकाले और शकूरन की तरफ बड़ा दिए। ये, ये पैसे, ये मैं नहीं ले सकती आपकी जरुरत के होंगे। शकूरन ने ताकुलफ से कहा तो उन्होंने पैसे शकूरन के हाथ में रख दिए और उनकी आँखों में देखते हुए कहा, "जरुरत के लिए थे, तभी तो अपनी जरुरत को दे रहा हूँ"। उनकी इस बात के बाद शकूरन की आँखों में कुछ झिलमिलाने लगा था, शायद उनको अहसास हो गया था की चाचा के दिल में उनके लिए क्या हैं, तभी तो उनकी आँखों में सिर्फ आँसू नहीं शर्म भी थी। जे कहां से लाए हो चाचा? सिराज ने पूछा तो वो बोले, "जवानी में जब बेगम साथ छोड़ गयी थी तो अपनी यादों के साथ कुछ जेवर भी छोड़ गई थी, आज काम आ गए"। लेकिन चाचा, सिराज ने उनको टोकते हुए कहा तो उन्होंने सिराज को खामोश रहने का इशारा किया और बोले, "ये पीर बाबा की मुरीद होना चाहती हैं इनकी ख्वाहिश मेरे लिए सबसे अहम हैं। जाओ दरगाह के इंतजामिया को ये पैसे दे दो और कह दो की बच्चो की शादी में हम ही निकाह पढ़ाएंगे"।
शकूरन के होंठ कांपने लगे थे वो शायद चाचा के हाथ पे हाथ रख देना चाहती थी लेकिन अभी कुछ फासला बाकी था। दरगाह के इंतजामिया को पैसे दे दिए गए, शकूरन को तब्लीगी मुरीद बना दिया गया, उसके लिए बाकायदा ढोल-तासे के बीच उन पर फूल बरसाए गए और एक पीला लिबास दे दिया गया, उन्होंने पहना और आज से वो पीर मुर्शीद की बाकायदा तब्लीगी मुरीद हो गई थी वहीं बैठी दूसरी औरतों की तरह जो अकसर चाचा को दिखती थी। शकूरन का पुरसुकून चेहरा देखकर, चाचा के चेहरे पर मुस्कुराहट थी।
अरे सुनो यार एक बात बतानी थी तुमको, चाचा ने अपने पेट पर हाथ मलते हुए कहा तो सिराज बोला, बताइये? यार बता ही दे वरना पेट दर्द होता ही रहेगा, चाचा ने कहा तो सिराज बोला, "बता भी दीजिये अब हमसे क्या छुपाना हैं"? चाचा बोले, वो सूबेदार ने बिरयानी की दावत दी थी ना, याद हैं? हाँ, हाँ अब्बा भी गए थे ना उसमे बहुत लजीज मटन बिरियानी थी, क्या हुआ? चाचा बोले, सूबेदार के बकरे का..... कहते, कहते वो रुक गए। चलो छोडो फिर बताएँगे कभी, कहते हुए आगे बढ़ गए। अपने फ्री पास के चक्कर में कहते-कहते रुक गए। काफी दिनों से चुगली ना करने से पेट भारी होने लगा था और वो तकलीफ लुकुमान हलवे से भी दूर नहीं होने वाली थी।
बरहाल दरगाह कमेटी ने कुछ जोड़ो का शादी करवायी और निकाह पढ़वाया चाचा से, एक तरफ लड़के थे और दूसरी तरफ लड़कियाँ। लड़कों के साथ चाचा थे और लड़कियों के साथ शकूरन बैठी हुई थी। चाचा निकाह पढ़ाते हुए बिना निगाह हटाए शकूरन को देखते जा रहे थे। वो पीला रंग उनपे खूब खिल रहा था। चाचा अपने ख्यालों की दुनिया में यूँ देख रहे थे की वो पीलों कपड़ों में अपनी हल्दी की रश्म में बैठी हुई हैं, वहीं उन्होंने तय कर लिया की बस अब जितनी तैयारी करनी थी कर चुके अब सीधे इजहार करेंगे, सिराज से कह देंगे की जाके बात कर लो। सिराज को जब चाचा के इरादे का पता चला तो बोला, "जे ठीक हैं अब करते हैं चोट, लोहा गरम हैं अब मैं भी थक गया हूँ आपके साथ चक्कर लगाते-लगाते। चाचा ने सिराज के कहने पर शकूरन को दो दिन के लिए वापिस अपने घर चलने के लिए मना लिया, इस ख्याल के साथ की रास्ते में ही इजहार कर लिया जाएगा।
उसी शाम बस अड्डे पर खड़ी आखिरी बस की पिछली सीट पर शकूरन, सिराज और चाचा बैठे थे। बस आहिस्ता-आहिस्ता बढ़नी शुरू हुई और फिर रफ्तार पकड़ ली। कुछ घंटो के सफर के बाद चाचा ने बीच में बैठे सिराज को कोहनी मार कर विंडो सीट पर बैठी शकूरन की तरफ इशारा किया और फुसफुसाए, बात कर ना, अबे इतना खर्चा हो गया अब कब करेगा बात। फिर सिराज आहिस्ता-आहिस्ता शकूरन के कान में कुछ कहने लगा, वो बहुत देर तक उसको कुछ बोलता-बताता रहा। इधर तमाम लोगो के राज कई दिनों से पेट में छुपाये चाचा का पेट दुःख रहा था उनका मन कर रहा था की जल्दी से ये सब निपटे तो मोहल्ले में जाके नागाड़ा पीटे, वो अपना पेट सहलाते रहे और कोशिश करते रहे की सिराज की बातें उनको भी सुनाई दे लेकिन उनको कुछ सुनाई नहीं दिया। शकूरन बहुत देर तक सिराज की बातें सुनती रही फिर बोली, "जो बात तुमने अब कहीं हैं शायद थोड़ा पहले कह देते तो बेहतर होता"। क्यों? सिराज ने पूछा तो बोली, "सिराज, अब मैं पीर बाबा की तब्लीगी मुरीद हूँ, पीली ओढ़नी ओढ़ती हूँ, तुमने दरगाह में उन औरतों को नहीं देखा, तब्लीगी मुरीद शादी नहीं करते"। सिराज के कानो में ये आखरी लफ्ज, घंटाघर के घंटे की तरह गूंज रहे थे, तो मतलब आप शादी नहीं कर सकती? उसने फिर पूछा तो शकूरन ने "ना" में सिर हिला दिया।
क्या बात हैं सिराज परेशान क्यों लग रहे हो? चाचा ने मासूम बनते हुए सिराज के चेहरे पर पसीना देखकर पूछा, उसने चाचा को गौर से देखा और सर दाएं से बाएं हिलाने लगा। अरे क्या हुआ? उन्होंने दुबारा पूछा तो सिर्फ इतना कह पाया, "तब्लीगी मुरीद शादी नहीं करते"?
चाचा के नथुने फूलने लगे, माथे से पसीना बहने लगा, अफसोस का दरिया मन में उमड़ने लगा और वो जोर से साँस लेने लगे, अचानक खड़े हुए। शकूरन ने उनको देखा और कहा, सब ठीक तो हैं ना क्या हुआ? चाचा चिल्लाके एक साँस में बोले, "ये आदमी बसों में दवाइयॉं बेचता हैं, मंसूर नकली बाँट से घटतौली करता हैं और और सूबेदार के बकरे का एक कान भी नहीं था"। बस के सारे मुसाफिर और शकूरन उनको हैरानी से देख रहे थे, किसी को समझ नहीं आया की इसका मतलब क्या हैं? चाचा ने बस रुकवाई और गुस्से में पैर पटकते हुए बस से नीचे उतर गए। बस दुबारा चल पड़ी, वो जाती हुई बस को देखते रहे, उदास तो थे लेकिन पेट में आराम आ गया था।
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